कृषि वैज्ञानिकों ने गेहूं के समान ही जौ की नई वैरायटी Jou ki new variety विकसित की है, आईए जानते हैं इसका बीज कहां मिलेगा एवं अन्य डिटेल..
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Jou ki new variety | जौ की खेती अधिकांश तौर पर राजस्थान में अधिक होती है, क्योंकि राजस्थान के कई क्षेत्रों में या तो पानी की उपलब्धता कम है वहीं कहीं-कहीं पानी उपलब्ध भी है तो वह खारा है।
राजस्थान के किसानों की इन्हीं समस्याओं को देखते हुए कृषि वैज्ञानिकों ने जौ की नई कि विकसित की है। जौ कि इस नई किस्म की खेती देश के अन्य भूभाग में भी हो सकती है। कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई इस वैरायटी का बीज सर्वप्रथम किसानों को दिया जाएगा।
इसके लिए राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय में खोज उपरांत जौ Jou ki new variety कि इस नवीनतम किस्म का 600 क्विंटल बीज तैयार किया है। किसानों को बीज कैसे मिलेगा एवं इस वैरायटी की विशेषताएं क्या है, आईए जानते हैं..
गेहूं की तरह बिना छिलके वाली है ‘जौं’ की यह किस्म
60 के दशक तक ‘जौ’ हमारे भोजन की मुख्य सामग्री में से एक था, जिसकी जगह बाद में गेहूं और चावल ने ले ली। जौ के मुकाबले यह दोनों खाने में भले ही ज्यादा स्वादिष्ट और छिलके रहित रहें, लेकिन कोरोना महामारी ने लोगों को ‘जौ’ की अहमियत फिर से याद दिला दी। Jou ki new variety
बीते कुछ सालों में देशभर में इसकी मांग में 10 परसेंट से अधिक की बढ़ोतरी हुई है। साल 2023 को अंतर्राष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष के तौर पर मनाये जाने, जी की बढ़ती डिमांड और इसके फायदों को देखते हुए राजस्थान एग्रीकल्चर रिसर्च सेंटर दुर्गापुरा, जयपुर ‘जी’ की ऐसी किस्म तैयार कर रहा है जो मैदानी इलाकों में भी पैदा हो सकेगा।
वहीं राजस्थान में बढ़ते जल संकट के बीच कम पानी और खारे पानी (लगातार भूजल गिरने के कारण जमीन के 700 फीट नीचे खारा पानी निकल रहा है) में भी इसकी खेती आसानी से हो सकेगी। Jou ki new variety
टर्मिनल हीट से भी इसके उत्पादन पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। देश के विभिन्न सेंटर्स पर इस वैरायटी का ट्रायल चल रहा है।
इस वैरायटी में सबसे बड़ी विशेषता यह होगी कि इसके दाने छिलका रहित होंगे अर्थात गेहूं के दाने की तरह इसका दाना होगा।
जौ में बीटा ग्लूकन रेशा, स्वास्थ्य के लिए लाभदायक
जौ Jou ki new variety में पाया जाने वाला बीटा ग्लूकन स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है। डायटीशियन डॉ. अमिता अग्रवाल का कहना है कि इसमें विटामिंस और मिनरल्स से भरपूर होता है।
ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम होता है जो ब्लड शुगर के लिए कारगर है। इस से बनी दवा का प्रयोग काफी प्रभावी है। इसका उपयोग चॉकलेट, सिरप, कैंडी और जौ युक्त दूध बनाने में किया जाता है।
जौ की अन्य बेहतरीन किस्में
डीडब्ल्यूआरबी-219 :– इस किस्म Jou ki new variety को भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान) करनाल-हरियाणा ने पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, (कोटा और उदयपुर डिवीजन को छोड़कर), पश्चिमी उत्तर प्रदेश (झांसी डिवीजन को छोड़कर), जम्मू और कश्मीर के जम्मू और कठुआ जिले, हिमाचल प्रदेश के पांवटा घाटी और ऊना जिले और उत्तराखंड के तराई क्षेत्रों के लिए विकसित किया गया है।
एनडब्ल्यूपीजेड की सिंचित/सीमित सिंचाई की स्थिति, औसत उपज 54.49 क्विंटल/हेक्टेयर, मैच्योरिटी 132 दिन, पीले रतुआ के लिए प्रतिरोधी और जौ के पत्ती रतुआ रोग के लिए मध्यम प्रतिरोधी,: आवास के प्रति सहनशील, प्रोटीन सामग्री : 11.4%
आर डी 2052 (1991) – 120-125 दिन में पकने वाली इस किस्म Jou ki new variety की ऊंचाई 85–95 सेन्टीमीटर तक होती हैं एवं पत्तियां नीचे झुकी हुई होती हैं। दाना मध्यम मोटाई का पीले रंग का होता है। पकने पर इस किस्म की बालियां झुकी हुई होती हैं। इसके 1000 दानों का वजन 45-50 ग्राम होता है । मोल्या रोगग्रस्त एवं सामान्य क्षेत्रों के लिये उपयुक्त इस किस्म की उपज 45-65 क्विण्टल प्रति हैक्टेयर तक ली जा सकती है।
आर डी 2035 (1994) :– यह किस्म मध्यम ऊंचाई (75-85 सेन्टीमीटर) 115-125 दिन में पकने एवं अधिक फुटान वाली किस्म है। इसकी बालियां मध्यम लम्बाई की एवं ऑन्स का सिरा हल्का भूरा रंग लिये होता है। दाना मध्यम मोटाई वाला भूरा पीले रंग का होता है।
मोल्या रोधक इस किस्म Jou ki new variety के एक हजार दानों का वजन 40-45 ग्राम 22 होता है। सामान्य बुवाई वाले सिंचित क्षेत्रों के लिये उपयुक्त इस किस्म की उपज 65-75 क्विण्टल प्रति हैक्टेयर तक होती है।
आर डी 57 (1978) :– इसके पौधे अपेक्षाकृत बौने परन्तु उपज अधिक होती है। यह कम उपजाऊ सिंचित क्षेत्रों के उपयुक्त पाई गई है। इसके पौधे आड़े नहीं गिरते हैं । यह 40 क्विण्टल प्रति हैक्टेयर तक उपज देती है।
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आर डी 103 (1978) :– अधिक उपज देने वाली इस बौनी किस्म के पौधे 70-80 सेन्टीमीटर ऊंचे एवं इसका दाना मोटा होता है। कम अथवा अधिक कैसी भी उपजाऊ सिंचित भूमि के लिये उपयुक्त यह किस्म 40-60 क्विण्टल प्रति हैक्टेयर तक उपज देती है। इसमें मोयले का प्रकोप कम पाया गया है। Jou ki new variety
बी एल 2 (बिलाड़ा 2) (1980) :– लवणीय व क्षारीय क्षेत्रों के लिये उपयुक्त इस किस्म के पौधे मध्यम लम्बे, पत्तियां हल्की हरी झुकी हुई, बालियां सीधी होती हैं । दाने हल्के नीलिमा लिये मोटे होते हैं । यह 100-112 दिन में पक जाती है। कीट एवं व्याधि से साधारणतया प्रभावित होने वाली किस्म है।
आर डी 31 (1978) :– 70 – 75 सेन्टीमीटर ऊंचाई के पौधे वाली यह बौनी किस्म 115 दिन में पक जाती है और बारानी खेती के लिये उपयुक्त है। इसकी बाली सीधी, गंदली पीली और छिलके युक्त होती है जिनमें सालू छः कतारों से होते हैं । दाना सुगठित नीली झांई लिये पीला होता है।सामान्यतः इसकी फसल आड़ी नहीं गिरती है । इसके एक हजार दानों का वजन 40-46 ग्राम होता है। यह 20 – 30 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज देती है।
आर डी 2552 (2000) :– यह सामान्य अवस्था तथा लवणीय व क्षारीय भूमि में बुवाई के लिए उपयुक्त किस्म है। यह Jou ki new variety पीली व भूरी रोली रोगरोधी है तथा 120-127 दिन में पक जाती है। इस किस्म से सामान्य बुवाई वाले क्षेत्रों में 50-60 क्वि तथा लवणीय व क्षारीय भूमि में 30-37 क्वि. प्रति हैक्टेयर तक उपज ली जा सकती है।
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आर डी 2715 (2008) :– कृषि अनुसंधान केन्द्र दुर्गापुरा द्वारा विकसित दोहरी उपयोगिता वाली (हरा चारा व दाना) यह किस्म देश की पहली ऐसी किस्म हैं जिसमे हरा चारा अन्य किस्मों से अधिक प्राप्त होता हैं। यह किस्म सामान्य बुवाई एवं सिंचित क्षेत्रो के लिये उपयुक्त हैं। इस किस्म में बुवाई के 50 से 55 दिन की अवधि पर कटाई करने से औसतन 175-180 क्वि. चारा प्रति हैक्टेयर प्राप्त किया जा सकता है।
कटाई के पश्चात सामान्य सिंचाई व हल्के नत्रजन का छिड़काव एवं कृषि क्रियाओं के साथ यह 120-125 दिन में पक जाती हैं। इसकी औसत उपज 26–28 क्वि. प्रति हैक्टेयर हैं । यह पीली रोली एवं चेपा रोधक किस्म हैं। इस किस्म के पौधों की उँचाई सामान्यता 85-100 सेमी. होती हैं एवं 100 दानों का वजन 42-43 ग्राम होता हैं।
आर डी 2794 (2012) :- कृषि अनुसंधान केन्द्र दुर्गापुरा द्वारा विकसित यह किस्म Jou ki new variety सिंचित क्षेत्रों में सामान्य बुवाई के लिए उपयुक्त है। यह किस्म विशेषतः लवणीय व क्षारीय मृदाओं के लिए अनुमोदित की गई है । छः कतारों के सालु वाली यह किस्म लगभग 121 दिनों में पकती है तथा इसके दानों की उपज 30 क्विंटल प्रति हेक्टर पायी गयी है । इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 69 सेमी व 1000 दानों का वजन 38 ग्राम पाया गया है।
जौ की खेती की तैयारी एवं भूमि उपचार
जौ की खेती सामान्यतः सभी स्थितियों में की जा सकती है लेकिन विपरीत परिस्थितियों जैसे पिछेती बुवाई एवं बारानी स्थिति, कम उर्वरा भूमि, क्षारीय और लवणीय भूमि में भी जौ उगाया जा सकता है। खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग कर इसकी उपज को काफी सीमा तक बढ़ाया जा सकता है।
जौ की खेती के लिए खेत अच्छी तरह तैयार करें। आखिरी जुताई के पहले भूमिगत कीड़ों की रोकथाम हेतु प्रति हैक्टेयर 25 किलो क्यूनॉलफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण मिट्टी में मिला देवें। Jou ki new variety
जैविक खाद का प्रयोग बढ़ाएगी पैदावार
खेत में प्रति हैक्टेयर 8 से 10 टन अच्छी सड़ी हुई खाद कम से कम तीन साल में एक बार बुवाई से एक माह पहले अवश्य देवें। अगर खरीफ की फसल में इतना खाद दिया जा चुका हो तो रबी में यह खाद देना आवश्यक नहीं है। जैविक खाद डालने से पैदावार में बढ़ोतरी होगी। Jou ki new variety
बीजोपचार जरूर करें
बीज द्वारा फैलने वाली बीमारियों जैसे आवृत कण्डवा एवं पत्तीधारी रोग से फसल को बचाने हेतु बीज को 2.5 ग्राम मैन्कोजेब या 3 ग्राम थाइरम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। Jou ki new variety
जहां अनावृत कण्डवा का प्रकोप हो तो वहां दो ग्राम कार्बेक्सीन प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। कार्बेक्सीन से बीज उपचार करने के बाद अन्य किसी फफूंदनाशी से उपचार की आवश्यकता नहीं होती है।
यदि सिर्फ दीमक का ही प्रकोप हो तो 400 मिलीलीटर क्लोरपायरीफॉस 20 ई सी को 5 लीटर पानी में घोलकर 100 किलो बीज पर समान रूप से छिड़क कर बीजों को उपचारित करें एवं छाया में सुखाने के बाद बुवाई करें।
उर्वरक प्रयोग में सावधानी बरतें
Jou ki new variety ; मिट्टी की जांच की के दौरान मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला द्वारा दी गई सिफारिशों के अनुसार ही उर्वरक प्रयोग करें।
फास्फोरस एवं पोटाश धारी उर्वरकों की पूरी मात्रा तथा नत्रजनीय उर्वरक की बुवाई के समय दी जाने वाली मात्रा को ओरने से ऊर कर देवें।
शेष आधी नत्रजन की मात्रा खड़ी फसल में पहली तथा दूसरी सिंचाई के बाद देवें नत्रजनीय उर्वरकों की मात्रा कतारों में छिटक कर देना चाहिये। असिंचित क्षेत्रों में सभी उर्वरकों की पूरी मात्रा बुवाई के समय ही देवें। Jou ki new variety
जौ की खेती में सिंचाई प्रबंधन
सिंचाई जौ को सामान्यतः हल्की एवं दोमट मिट्टी में 4 से 5 सिंचाइयों की और भारी मिट्टी में 2 से 3 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है । बुवाई के 25 से 30 दिन बाद पहली सिंचाई देवें। इसके बाद आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिये । फूल आने एवं दाने की दूधिया अवस्था में पानी की कमी नहीं रहनी चाहिये अन्यथा इसका कुप्रभाव पैदावार पर बहुत अधिक पड़ता है। Jou ki new variety
निराई गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
प्रथम सिंचाई के 10 से 12 दिन के अन्दर कम से कम एक बार निराई गुड़ाई कर खरपतवार अवश्य निकाल दें व बाद में भी आवश्यकतानुसार खरपतवार निकालते रहें। चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करने हेतु दोनों किस्मों में बुवाई के 30-35 दिन व अन्य किस्मों में 40-50 दिन के बीच प्रति हैक्टेयर आधा किलो 2-4 डी एस्टर साल्ट या 750 ग्राम 2-4 डी अमाइन साल्ट या मेटाक्स्यूरॉन 250 ग्राम (सक्रिय तत्व) नीदानाशी रसायन को पानी में घोलकर छिड़कें। उर्वरक निराई गुड़ाई के बाद दें। Jou ki new variety
गुल्ली डण्डा (फेलेरिस माइनर ) व जंगली खरपतवार का प्रकोप जिन खेतों में गत वर्षो में अधिक रहा हो उन खेतों में बुवाई के 30 से 35 दिन बाद आइसोप्रोट्यूरान अथवा मेटाक्स्यूरॉन अथवा मेथोबन्जाथायोजूरॉन नीदानाशी, हल्की मिट्टी हेतु पौन किलो तथा भारी मिट्टी हेतु सवा किलो सक्रिय तत्व को पानी में घोलकर एक सार छिड़काव करें।
यह ध्यान रहे कि छिड़काव समान रुप से हो, कहीं भी दोहरा छिड़काव नहीं करना चाहिए। मेटाक्स्यूरॉन का छिड़काव करने से घास कुल व चौड़ी पत्ती वाले सभी खरपतवार नष्ट हो जाते हैं । जिन खेतों में गत वर्षों में इन खरपतवारों का मामूली प्रकोप रहा हो, उन खेतों में जब खरपतवार बड़े हो जायें तब इन खरपतवारों को बीज बनने से पहले खेत से निकाल देवें। Jou ki new variety
जौ की फसल में कीट रोग प्रबंधन
फ्लीबीटल और फील्ड क्रिकेट्स – कीटग्रस्त खेतों में प्रति हैक्टेयर 25 किलो मिथाइल पैराथियॉन 2 प्रतिशत चूर्ण को सुबह या शाम के समय भुरकें।
मकड़ी, मोयला व तेला – पहली बार मकड़ी का प्रकोप दिखाई देने पर मिथाइल डिमेटोन 25 ई सी या डायमिथोएट 30 ई सी एक लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें। इस छिड़काव से मोयला व तेला कीट की रोकथाम भी हो जाएगी। यदि आवश्यकता हो तो 15 दिन बाद इस छिड़काव को दोहरायें । Jou ki new variety
दीमक – यदि आवश्यक हो तो खड़ी फसल में दीमक नियंत्रण हेतु क्लोरोपायरीफॉस 20 ई सी चार लीटर प्रति हैक्टेयर सिंचाई के साथ देवें।
रोली रोग – रोली के लक्षण दिखाई देते ही 25 किलो गन्धक चूर्ण का प्रति हैक्टेयर की दर से सुबह या शाम के समय भुरकाव करें। यह भुरकाव 15 दिन के अन्तर से 2 से 3 बार करें। ज्यादा प्रकोप होने पर ट्राईडेर्मोफ 750 मिलीलीटर प्रति हैक्टेयर छिड़कें। Jou ki new variety
मोल्या रोग :– इस रोग से ग्रस्त पौधे छोटे रहकर पीले पड़ जाते हैं और जड़ों में गाठें बन जाती हैं। रोग की रोकथाम हेतु एक या दो साल तक गेहूं या जौ की फसल नहीं बोयें। इसके स्थान पर जौ की मोल्या रोगरोधी आर डी 2035 या आर डी 2052 किस्म बोयें या फसल चक्र में चना, सरसों, प्याज, सूरजमुखी, मैथी, आलू या गाजर की फसल बोयें।
इसके अतिरिक्त रोग की रोकथाम हेतु मई जून की कड़ी गर्मी में एक पखवाड़े के अन्तर से खेतों की दो बार गहरी जुताई करें। जिन खेतों में रोग का प्रकोप हो वहां खेतों की बुवाई से पहले 30 किलो कार्बोफ्यूरॉन 3 प्रतिशत कण प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में ऊर कर बुवाई करें। Jou ki new variety
अनावृत कण्डवा रोग एवं पत्ती कण्डवा रोग :- रोग दिखाई देते ही रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देवें ताकि रोग का और फैलाव न हो। बचाव हेतु बीजोपचार अवश्य करें।
किसान साथी इन बातों का विशेष ध्यान रखें
जौ Jou ki new variety की फसल की हरा चारा के लिये भी बुवाई की जा सकती है। हरे चारे के लिए जौ की बुवाई अक्टूबर मध्य में करनी चाहिए। इस हेतु 125-130 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर बीज दर काम में लेवें।
इसकी पहली कटाई बुवाई के 75 दिन बाद तथा दूसरी कटाई उसके 45 दिन बाद करें। जौ – सरसों, की मिश्रित / खेती से हरे चारे की गुणवत्ता तथा उत्पादन में बढ़ोतरी होती है । Jou ki new variety
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