Pusa Advisory: फरवरी माह में किसानों को क्या क्या कृषि कार्य करना चाहिए। आइए कृषि वैज्ञानिकों से जानते है।
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Pusa Advisory | फरवरी माह जिसे माघ फाल्गुन भी कहते हैं, बसंत पंचमी का त्यौहार लेकर आता है। चारों तरफ पीले-पीले फूल खिले होते हैं तथा मौसम में धीरे-धीरे ठंड कम होने लगती है।
फरवरी माह में किए जाने वाले प्रमुख कृषि कार्यों पर जानकारी दी गयी है। आइए आर्टिकल में जानते है फरवरी माह में किसानों को क्या क्या कृषि कार्य करना चाहिए…
Pusa Advisory : गेहूं और जौ के कृषि कार्य
प्रथम तथा अन्तिम सिंचाई अपेक्षाकृत हल्की करें। फसल को गिरने से बचाने के लिए बाली निकलने के बाद सिंचाई वायु की गति के अनुसार करें। समय पर बोयी गई गेहूं की फसल में फूल आने लगते हैं। इस दौरान फसल को सिंचाई की बहुत जरूरत होती है।
गेहूं में समय से बुआई के हिसाब से तीसरी सिंचाई गांठ बनने (बुआई के 60-65 दिनों बाद) की अवस्था तथा चौथी सिंचाई फूल आने से पूर्व (बुआई के 80-85 दिनों बाद) एवं पांचवीं सिंचाई दूधिया ( बुआई के 110-115 दिनों बाद) अवस्था में करें। पछेती या देर से बोयी गयी गेहूं की फसल में कम अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। : Pusa Advisory
इस कारण फसल में अभी क्रांतिक अवस्थाओं जैसे- शीर्ष जड़ें निकलना, कल्ले निकलते समय, बाली आते समय, दानों की दूधिया अवस्था एवं दाना पकते समय सिंचाई करनी चाहिए। मार्च या अप्रैल में अगर तापमान सामान्य से अधिक बढ़ने लगे तो एक या दो अतिरिक्त हल्की सिंचाई अवश्य करनी चाहिए।
पौधों की उचित बढ़वार एवं विकास के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से पौधों की वृद्धि, जनन क्षमता एवं कार्यिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भारतीय मृदा में जस्ते की औसत मात्रा 1 पीपीएम के लगभग पायी जाती है। मृदा में जस्ते की मात्रा 0.5 पीपीएम से कम होने पर इसकी कमी के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। : Pusa Advisory
पौधों में जस्ते की कमी की क्रांतिक मात्रा 20 पीपीएम होती है। जस्ते के प्रयोग की मात्रा जस्ते की कमी, मृदा एवं फसल के प्रकार आदि पर निर्भर करती है। खड़ी फसल में कमी के लक्षण दिखाई देने पर 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट के घोल का छिड़काव 10 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार करना चाहिए।
मृदा में आयरन की कमी कम कार्बनिक पदार्थ वाली मृदा, चूनेदार मृदा, लोहा-पीलापन एवं क्षारीय मृदा में फसल उत्पादन में मुख्य रूप से बाधा आती है । मृदा एवं पौधों में इसकी क्रांतिक मात्रा क्रमशः 4-5 एवं 50 पीपीएम है। लोहे की कमी की पूर्ति पर्णीय छिड़काव से भी की जा सकती है। : Pusa Advisory
गेंहू में नजर आ सकती है मैंग्नीज की कमी
मैंग्नीज की कमी के लक्षण गेहूं की ऊपरी पत्तियों पर पीली धारियों के रूप में नसों के बीच में प्रकट होते हैं, जबकि नसें स्वयं हरी रहती हैं। कुछ पौधों में नसों के बीच भूरे रंग के धब्बे बनते हैं, जो आगे चलकर बड़े धब्बों का रूप ले लेते हैं। ये लक्षण सबसे पहले नये पत्ते से शुरू होकर धीरे-धीरे सभी पत्तों को प्रभावित करते हैं। : Pusa Advisory
इसलिए इसके कमी के लक्षण सर्वप्रथम नई पत्तियों में दिखाई देते हैं। ऐसी मृदा, जिसमें मैंग्नीज की उपलब्धता 1 मि.ग्रा./कि.ग्रा. मृदा या इससे कम होती है, अधिकांशतः उन्हीं मृदाओं में उगने वाली फसलों में मैग्नीज उर्वरकों के प्रयोग से गेहूं के उत्पादन में वृद्धि दर्ज की गयी है।
इसकी कमी वाले पौधे के ऊतकों में मैंग्नीज की सान्द्रता प्रायः 25 मि.ग्रा./कि.ग्रा. ऊतक से कम होती है। गेहूं, जौ तथा जई ऐसी फसलें हैं, जिन्हें मैग्नीज की अधिक आवश्यकता होती है। फसलों में इसकी कमी के लक्षण दिखाई देते ही तुरन्त इसे दूर करने के उपाय करने चाहिए। : Pusa Advisory
मैंग्नीज उर्वरकों का प्रयोग मृदा में मिलाकर या खड़ी फसलों पर तथा सीधे छिड़काव द्वारा किया जाता है। इसकी कमी वाली मृदा में मृदा प्रयोग विधि से दी गयी मैंग्नीज का निर्धारण पौध के अनुपलब्ध रूप में हो जाता है। प्राय: 0.5 प्रतिशत मैग्नीज सल्फेट के तीन छिड़काव 10-15 दिनों के अंतराल पर करने से इसकी कमी पर नियंत्रण हो जाता है। ऐसा करने से गेहूं के उत्पादन में तीन गुना तक की वृद्धि पायी गयी है। : Pusa Advisory
गेहूं, धान, गन्ना, मूंगफली, सोयाबीन आदि में 1-2 प्रतिशत आयरन सल्फेट का पर्णीय छिड़काव, मृदा अनुप्रयोग की अपेक्षा अधिक लाभकारी पाया गया है। मृदा में अनुप्रयोग की मात्रा 20-150 कि.ग्रा./ हैक्टर आयरन सल्फेट, पर्णीय छिड़काव की अपेक्षा अधिक होने के कारण मृदा अनुप्रयोग आर्थिक रूप से लाभप्रद नहीं है। आयरन की कमी को दूर करने में आयरन – चिलेट का प्रयोग अन्य अकार्बनिक स्रोतों की अपेक्षा अधिक लाभकारी होता है, परन्तु महंगा होने के कारण किसान इसका प्रयोग नहीं कर पाते हैं।
इस रोग के लक्षण जनवरी के अन्तिम सप्ताह या फरवरी के प्रारम्भ में पत्तियों पर पिन के सिर जैसे छोटे-छोटे, अण्डाकार, चमकीले पीले रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं। ये पत्ती की शिराओं के बीच में पंक्तियों में होने से पीले रंग की धारियां बनाते हैं।
बाद में पत्ती की बाह्य त्वचा के नीचे काले रंग के टीलियम रेखाओं के रूप में बनते हैं। ये चपटी काली पपड़ी द्वारा ढके रहते हैं। रोगग्रसित पौधों की पत्तियां सूख जाती हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए एच.डी. 3386, एच.डी. 3369, एच.डी. 3086, एच. डी. 2967, डब्ल्यू.एच. 1105 आदि अनुमोदित प्रजातियां ही उगायें। : Pusa Advisory
इस रोग की रोकथाम हेतु खड़ी फसल में टिल्ट 25 ई.सी.(प्रॉपिकोनेजोल) या ट्राइडिमिफोन 25 डब्ल्यू.पी. या टेबुकोनेजोल 250 ई. सी. का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें। प्रति एकड़ के लिए 200 मि.ली. दवा 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
गेरुई या रतुआ रोग से बचाव
Pusa Advisory | गेहूं की फसल में गेरुई या रतुआ जैसे रोगों के लक्षण दिखाई देने पर टेबुकोनेजोल 25 ई.सी. (फोलिकर) या ट्राइडिमिफोन 25 डब्ल्यू. पी. (बेलिटॉन) या टिल्ट 25 ई.सी. (प्रॉपिकोनेजोल) का 0.1 प्रतिशत का घोल बनाकर पत्तियों पर छिड़काव करें।
फैलाव तथा रोग के प्रकोप को देखते हुए दूसरा छिड़काव 15-20 दिनों के अंतराल पर करें। बुआई के लिए अच्छे एवं स्वस्थ बीज को ही इस्तेमाल में लें। उत्तर – पश्चिमी मैदानी क्षेत्र के लिए एच.डी. 2967, एच.डी. 3086, डब्ल्यू.एच. 1105, एच.डी. 3043, एच.डी. 3059 एवं डी. पी. डब्ल्यू. 621-50 आदि प्रजातियों का चयन करना लाभकारी है। : Pusa Advisory
इस रोग में बालियों के दानों के स्थान पर काला चूर्ण बन जाता है। यह सफेद झिल्ली द्वारा ढका रहता है। इसके कारण बाद में झिल्ली फट जाती है और फफूंदी के असंख्य बीजाणु हवा में फैल जाते हैं। ये स्वस्थ बालियों में फूल आते समय उनको संक्रमित करते हैं।
करनाल बंट रोग के प्रबंधन
Pusa Advisory | आजकल गेहूं में टिलिशिया इण्डिका नामक कवक के कारण उत्पन्न इस रोग में थ्रेसिंग के बाद निकले दानों में बीज की दरार के साथ-साथ गहरे भूरे रंग के बीजाणु समूह देखे जा सकते हैं।
अनावृत कण्डुआ एवं करनाल बन्ट के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. की 2.5 ग्राम अथवा थीरम 75 प्रतिशत डब्ल्यू. एस. की 2.5 ग्राम अथवा कार्बोक्सिन 75 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. की 2.0 ग्राम अथवा टेबुकोनाजोल 2 प्रतिशत डी. एस. की 1.0 ग्राम / कि.ग्रा. बीज की दर से बीज उपचार कर बुआई करनी चाहिए।
मृदाजनित एवं बीजजनित रोगों के नियंत्रण हेतु जैव कवकनाशी (बायोपेस्टीसाइड) ट्राइकोडर्मा विरिडी 1 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. अथवा ट्राइकोडर्मा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. की 2.5 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर 60-75 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलायें। इसमें हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिनों तक छाया में रखें। : Pusa Advisory
इसके उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर मृदा में मिला देने से रोगों के प्रबंधन में सहायता मिलती है। अतः स्वस्थ एवं निरोगी बीज पैदा करने हेतु बाली निकलते ही 2.0 कि.ग्रा. मैंकोजेब या 500 मि.ली. टिल्ट 25 ई.सी. (प्रॉपिकोनेजोल) को 500-600 लीटर पानी में घोलकर / हैक्टर की दर से छिड़काव करें। चूर्णिल फफूंद रोग के प्रबंधन हेतु रोग सहिष्णु किस्मों का प्रयोग करें। रोग के आते ही दाने बनने की अवस्था तक 0.1 प्रतिशत टिल्ट 25 ई.सी. (प्रॉपिकोनेजोल) का पत्तियों पर छिड़काव करें। : Pusa Advisory
पर्ण झुलसा रोग
यह एक जटिल रोग है, जो अल्टरनेरिया ट्रिटिसाइना, पायरेनोफोरा ट्रिटिसाई रीपेंटिस एवं बाइपोलेरिस सोरोकिनियाना द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग में पत्तियों पर बहुत छोटे, गहरे भूरे रंग के, पीले प्रभामंडल से घिरे धब्बे बनते हैं, जो बाद में परस्पर मिलकर पर्ण झुलसा रोग उत्पन्न करते हैं। इस रोग की रोकथाम हेतु खड़ी फसल में 0.1 प्रतिशत टिल्ट 25 ई.सी. (प्रॉपिकोनेजोल) का छिड़काव करें। : Pusa Advisory
2.5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से कार्बोक्सिन ( वीटावैक्स 75 डब्ल्यू. पी.) रसायन के साथ बीजोपचार कर बुआई करें। इसके अलावा रोग प्रतिरोधी किस्में उगाएं। यदि माहूं का प्रकोप हो तथा इसे खाने वाले गिडार की संख्या कम हो, तो क्वीनालफॉस 25 ई.सी. का 1.0 लीटर गेहूं में माहूं कीट का प्रकोप या मोनोक्रोटोफॉस 25 ई.सी. का 1.4 लीटर दवा को मिथाइल-ओ-डीमेटान 25 ई.सी. की 1.0 लीटर दवा को 600-800 लीटर पानी में घोलकर / हैक्टर की दर से छिड़काव करें।: Pusa Advisory
गेहूं के खेत में चूहों का प्रकोप होने पर जिंक फॉस्फाइड से बने चारे अथवा एल्यूमीनियम फॉस्फाइड की टिकिया का प्रयोग करें। चूहों की रोकथाम के लिए सामूहिक प्रयास अधिक सफल होगा। रस चूसने वाले कीट जैसे – चेंपा के लिए इमिडाक्लोरोप्रिड 200 एस. एल. या 20 ग्राम सक्रिय तत्व का छिड़काव खेत के चारों तरफ दो मीटर बॉर्डर पर करें। यदि अधिक प्रकोप हो, तो इस कीटनाशी का प्रयोग पूरे खेत में करें।
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शीतकालीन मक्का
Pusa Advisory | रबी मक्का में 4-5 सिंचाइयां करनी पड़ती है। शीतकालीन मक्का की फसल में पांचवीं सिंचाई (120-125 दिनों बाद) दाना भरते समय अवश्य करनी चाहिए। अगर आवश्यकता हो, तो अतिरिक्त सिंचाई खेत की नमी के अनुसार करना उपयुक्त होगा, अन्यथा पौधों की बढ़वार के साथ-साथ उपज में भी कमी हो जायेगी।
मक्का की फसल में तनाबेधक कीट और पत्ती लपेटक कीट की रोकथाम के लिए कार्बेरिल दवा के 2.5 मि.ली. घोल को 500 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें। शरदकालीन मक्का में यदि रतुआ तथा चारकोल बंट का खतरा हो तो 400-600 ग्राम डाइथेन एम. 47 को 200-250 लीटर पानी में घोलकर 2-3 छिड़काव करें। : Pusa Advisory
गुलाबी उकठा रोग : इस रोग में दाने पड़ने के बाद पौधे खेत में कम नमी के कारण सूखने लगते हैं। तने को तिरछा काटने पर संवहन नलिकायें निचली पोरों पर गुलाबी रंग की दिखाई देती हैं तथा सिकुड़ जाती हैं।
काला चूर्ण उकठा रोग : कटाई से 10-15 दिनों पहले पौधे खेत में सूखे दिखाई देते हैं। तनों को तिरछा काटने पर जड़ों के पास संवहन नलिकायें सिकुड़ी हुईं तथा कोपलें चूर्ण से भरी हुई दिखायी देती हैं। : Pusa Advisory
इसकी रोकथाम हेतु स्वस्थ बीज का प्रयोग, बीजजनित रोगों से बचाव हेतु बीज को थीरम 2.5 ग्राम अथवा कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत की 2 ग्राम मात्रा में प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करके ही बोना चाहिए। कवकजनित रोगों से बचाव के लिए ट्राइकोडर्मा से 20 ग्राम / कि.ग्रा. बीज की दर से बीज उपचारित करें।
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चना, मटर और मसूर
Pusa Advisory | चने में आवश्यकता हो तो फूल आने से पूर्व ही सिंचाई करें। फूल आते समय सिंचाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा फूल झड़ने से उपज में हानि होती है। बारानी क्षेत्रों में जल की उपलब्धता तथा जाड़े की वर्षा न होने पर बुआई के 75 दिनों बाद सिंचाई करना लाभप्रद होता है। असिंचित क्षेत्रों में चने की कटाई फरवरी के अंत में होने लग जाती है।
फेरोमोन ट्रैप ऐसा रसायन है, जो अपने ही वर्ग के कीटों को गंध द्वारा आकर्षित करता है। मादा कीट में जो हार्मोन निकलता है। यह उसी तरह की गंध से नर कीटों को आकर्षित करता है। इन रसायनों को सेक्स फेरोमोन ट्रैप कहते हैं। इसका उपयोग चने के फलीछेदक कीट के फसल पर प्रकोप करने के समय की जानकारी हेतु किया जाता है। : Pusa Advisory
फेरोमोन का रसायन एक सेप्टा (कैप्सूल) में यौन – जाल में रख दिया जाता है। 5-6 फलीछेदक कीट के नर यौन – जाल में फंसें हों, उसी समय चने की फसल पर कीटनाशी दवाओं का प्रयोग कर देना चाहिये। 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हैक्टर की दर से लगायें। यदि चने के खेत में चिड़ियां बैठ रही हो, तो यह समझ लें कि चने में फलीछेदक का प्रकोप होने वाला है।
निम्न रसायनों का प्रयोग तभी करना चाहिए, जब चना फलीछेदक का प्रकोप अत्यधिक हो। इसके नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफॉस (36 ई.सी.) 750 मि.ली. या क्यूनालफॉस (25 ई.सी.) 1.50 लीटर या इंडेक्सोकार्ब 1.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी या स्पाइनोसैड 45:0.2 मि.ली. प्रति लीटर पानी या इमामेक्टीन बेन्जोएट 5 प्रतिशत 0.4 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव अवश्य करें। : Pusa Advisory
चने की फसल में फलीछेदक कीट को नियंत्रण के लिए न्यूक्लियर पॉलीहेड्रोसिस वायरस 250 से 350 शिशु समतुल्य + 1.0 प्रतिशत टीनोपोल का प्रयोग फलीछेदक, 600 लीटर पानी में घोलकर / हैक्टर की दर से छिड़काव फरवरी के अन्तिम सप्ताह में करने से इसे अच्छी तरह से नियंत्रित कर सकते हैं।
चने में 5 प्रतिशत एन. एस. के. ई. या 3 प्रतिशत नीम का तेल या 2 प्रतिशत नीम के पत्ते का निचोड़ भी फली छेदक के नियंत्रण का एक अच्छा विकल्प है। बेसिलस थूरीनजेनसीस 1-15 कि.ग्रा. और बिवेरिया बेसियाना 1.0 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव • लाभदायक है। : Pusa Advisory
चने की फसल में झुलसा रोग के लक्षण में निचली पत्तियों का पीला पड़कर झड़ना व फलियों का कम बनना व विरल होना, इस रोग के विशिष्ट लक्षण हैं। प्रारंभ में पत्तियों पर जलसंतृप्त बैंगनी रंग के धब्बे बनते हैं, जो बाद में बड़े होकर भूरे हो जाते हैं।
इसके प्रकोप से फूल मर जाते हैं और फलियां बहुत कम बनती हैं। झुलसा रोग की रोकथाम के लिए मैंकोजेब 75 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. 2 ग्राम प्रति लीटर पानी या जिंक मैग्नीज कार्बामेंट 2.0 कि.ग्रा. अथवा थीरम 90 प्रतिशत 2 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें। : Pusa Advisory
धूसर फफूंद रोग वोट्राइटिस साइनेरिया नामक फफूंद से होता है। अनुकूल वातावरण होने पर यह रोग आमतौर पर पौधों में फूल आने और फसल के पूर्णरूप से विकसित होने पर फैलता है। वायुमंडल व खेत में अधिक आर्द्रता होने पर पौधे पर काले या भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं और फूल झड़ने लगते हैं। संक्रमित पौधों पर फलियां नहीं बनती हैं।
शाखाओं एवं तनों पर जहां फफूंद के संक्रमण से काले या भूरे धब्बे पड़ जाते हैं और पौधा गलने या सड़ने लगता है, फलियों में दाने नहीं बनते हैं और बनते भी हैं, तो सिकुड़े हुए होते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए कार्बेडाजिम या मैंकोजेब या क्लोरोथेलोनिल या कैप्टॉन का 2 से 3 बार एक सप्ताह के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए। : Pusa Advisory
चने की फसल में रस्ट रोग के लक्षण फरवरी व मार्च में दिखाई देते हैं। पत्तियों की ऊपरी सतह, टहनियों व फलियों पर हल्के भूरे और काले रंग के उभरे हुए चकत्ते बन जाते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए प्रोपिकोनाजोल (25 प्रतिशत ई.सी.) 200 मि.ली. या मैंकोजेब (75 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 500 ग्राम या थायोफिनेट मिथाइल (70 प्रतिशत डब्ल्यू. पी.) 300 ग्राम प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
मसूर की फसल में माहूं कीट पत्तियों तथा अन्य कोमल भागों का रस चूसकर हानि पहुंचाता है। इससे ग्रसित भाग सूख जाते हैं, पौधा कमजोर हो जाता है। तेलिया या थ्रिप्स कीट होता है, जो मसूर की पत्तियों, फूल एवं फलियों पर पाया जाता है। पत्तियों से वे रस चूसते हैं, जिससे उन पर सफेद रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं। : Pusa Advisory
मृदा में नमी की कमी से पौधों को अधिक हानि हो सकती है। माहूं तथा तेलिया कीट के नियंत्रण के लिए क्लोरोपायरीफॉस (20 ई.सी.) 750 मि.ली. या फॉस्फोमिडान (85 ई.सी.) 250 मि.ली. या डायमिथियेट (30 ई.सी.) 500 मि.ली. मात्रा को 500-600 लीटर पानी में घोलकर/ हैक्टर छिड़काव करें।
मसूर की फसल में पाउडरी मिल्ड्यू रोग एरीसायकी पोलीगोनी नामक कवक से होता है। फूल आने की अवस्था अतिसंवेदनशील है। अनुकूल परिस्थितियों में रोग बहुत अधिक हानि पहुंचाने में सक्षम है एवं धीरे-धीरे तनों, पत्तियों एवं फलियों पर फैल जाता है। रोगी फसल पर ट्रायडोमार्फ लीटर प्रति हैक्टर की दर से घुलनशील गंधक के 2 प्रतिशत का छिड़काव करें। : Pusa Advisory
मसूर की फसल में रतुआ रोग के लक्षण दिखाई देते ही रतुआरोधी प्रजाति इस रोग का प्रभाव निष्क्रिय करती है।
रोग दिखाई देते ही फसल पर मैंकोजेब की 0.25 प्रतिशत घोल (5.2 ग्राम दवा 1 लीटर पानी) का छिड़काव करना चाहिए।
राई – सरसों और सूरजमुखी असिंचित क्षेत्रों में यह सरसों की कटाई का समय है। अतः फसल की समय पर कटाई कर लें।
सरसों की फसल में पेन्टेड बग कीट का नुकसान 4-5 पत्तियों की अवस्था तक अधिक रहता है। वयस्क कीट तथा उसका निम्फ पौधे के तने व पत्तियों से रस चूसते हैं। इससे पत्ते सफेद हो जाते हैं तथा बाद में मुरझाकर गिर जाते हैं। इस कीट का प्रकोप होने पर 2 प्रतिशत मिथाइल पैराथियान या 5 प्रतिशत मैलाथियान 20-25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें। : Pusa Advisory
राई – सरसों की फसल में माहूं या चेंपा कीट पौधे के तने, फूलों व फलियों से रस चूसता है तथा फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है। जब कीट का प्रकोप औसतन 25 कीट प्रति पौधा हो जाए, तो इसमें से किसी एक कीटनाशक जैसे – मैलाथियॉन 50 ई.सी. 1250 मि.ली. या फॉस्फोमिडान 85 डब्ल्यू. एस. सी. 250 मि.ली. या थायोमिडान 25 ई.सी. 1000 मि.ली. या मिथाइल डिमेटॉन 25 ई.सी. या डाइमेथोएट 30 ई. सी. या मोनोक्रोटोफॉस 35 डब्ल्यू. एस. सी. प्रति हैक्टर की दर से 600-800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। : Pusa Advisory
सरसों की फसल में झुलसा या सफेद गेरुई रोग पत्तियों की निचली सतह पर सफेद फफूंद की वृद्धि दिखाई देती है। इस रोग से ग्रसित पत्तियों पर हल्के भूरे धब्बे दिखाई देते हैं। इस रोग के लक्षण दिखने पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड या जाइनेब या मैंकोजेब या कैप्टाफॉल (फोलटॉफ) 2 ग्राम/लीटर पानी की दर से 500-800 लीटर पानी का घोल बनाकर 10-12 दिनों के अंतराल पर दो छिड़काव अवश्य करें।
सब्जी फसलें पर ध्यान दें
आलू की फसल पर पछेती झुलसा रोग दिखाई दे, तो इंडोफिल- 45 दवा के 0.2 प्रतिशत नामक दवा का घोल बनाकर खड़ी फसल पर अच्छी तरह से छिड़काव करें। आलू के पत्ते काटने के बाद खुदाई करें। इससे आलू का छिलका मजबूत हो जाता है। : Pusa Advisory
खुदाई करने के बाद आलू को छाया में ढेर लगाकर सुखायें और ऊपर से मिट्टी साफ कर लें एवं बिना कटे आलुओं को बोरों में भरकर शीत भंडार में भेजने की व्यवस्था करें। सफेद सूंडी, आलू की फसल में मुख्य रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में पायी जाती हैं। देर से खोदी गई फसल पर इसका नुकसान अधिक होता है।
इसके नियंत्रण के लिए वयस्क सूंडियों को मारने के लिए परपोषी पौधों पर कीटनाशकों जैसे – क्लोरपाइरीफॉस 20 ई.सी. को 2.5 मि.ली. पानी में घोलकर मानसून के तुरन्त बाद छिड़काव करना चाहिए। मिट्टी चढ़ाते समय पौधों के नजदीक दैहिक कीटनाशी जैसे – फोरेट 10 प्रतिशत या कार्बोफ्यूरॉन 3 प्रतिशत की 2.5-3.0 कि.ग्रा. वास्तविक मात्रा का प्रति हैक्टर की दर से उपचार करें। : Pusa Advisory
प्याज में प्रति हैक्टर नाइट्रोजन की सम्पूर्ण 100 कि.ग्रा. मात्रा का 1/3 भाग (72 कि.ग्रा. यूरिया) रोपायी के 30 दिनों बाद सिंचाई कर टॉप ड्रेसिंग बचिंग करें। आवश्यकतानुसार समय पर निराई करें। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु स्टॉम्प का 3.0-5.0 लीटर / हैक्टर की दर से रोपायी के बाद सिंचाई से पहले छिड़काव करें।
नील लोहित धब्बा ( पर्पिल ब्लाच ) रोग: इस रोग में धब्बे से बन जाते हैं, जो मध्य से बैंगनी रंग के हो जाते हैं। नियंत्रण के लिए ब्लाइटॉक्स 50 (2.0 ग्राम / लीटर पानी) या डायथेन एम-45 या 0.2 प्रतिशत मैंकोजेब आवश्यकतानुसार 10 दिनों के अंतराल पर और थ्रिप्स कीट लगने पर 0.6 प्रतिशत फॉस्फेमिडान पानी में घोलकर छिड़काव करें। : Pusa Advisory
लहसुन में यदि नाइट्रोजन की दूसरी टॉप ड्रेसिंग न की हो, तो यूरिया की 75 कि.ग्रा. मात्रा बुआई के 60 दिनों बाद डालकर सिंचाई करें। रोग और कीटों से बचाव के लिए एक सुरक्षात्मक छिड़काव मैंकोजेब 2 ग्राम तथा फॉस्फेमिडान 0.6 मि.ली. / लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार मृदा में नमी की मात्रा कम होने पर हल्की सिंचाई करें। : Pusa Advisory
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